शैल चित्र
मच्छी खल्ला एवं रानी छज्जा
जिला अन्तर्गत डिकेन नगर के उत्तर पूर्वी दिशा में 6 कि.मी. की दूरी पर मच्छी खल्ला तथा उत्तर पश्चिमी दिशा में रामनगर के निकट ”रानी छज्जा” में शैलचित्र युक्त कन्दराए स्थित है जो की आदि मानव द्वारा निर्मित मध्य पाषाण काल से प्रागेतिहासिक काल तक के है।
पुरावशेष, शिलालेख, कलाकृतियाँ, वस्तुएँ आदि
पंचदेवल
जीरन तालाब के दक्षिण पश्चिम किनारे पंचदेवल स्थान के ठीक सामने मंदिरो के अवशेषों में एक छतरी का निर्माण हुआ जिसे भाना की छतरी का नाम दिया गया इस छतरी पर उत्कीर्ण 19 शिलालेखों पर ऐतिहासिक घटनाएं दर्ज है।
प्राचीन स्मारक
नवतोरण मंदिर खोर
यह स्थापत्य कला का अदभूत नमूना है। इस पर टंकित मूर्तियों की सुन्दरता संतुलन और ओज मर्ति कला के जीवित उदाहरण है यह 12वी व 13वी शताब्दी की कला चातुर्थ का विशेष उदाहरण है।
प्राचीन मंदिर, चर्च, मस्जिद आदि
बरूखेड़ा मंदिर
बरूखेड़ा के शिव मन्दिर नीमच से मात्र चार किलोमीटर दूर उत्तर में स्थित बरूखेड़ा, राजपूत काल में अत्यधिक महत्वपूर्ण नगर था। यहाँ प्राचीन अवशेषों से निर्मित 4 मन्दिर हैं जो नागर शैली में निर्मित हैं। बरूखेड़ा के पूर्व में चारभुजा मन्दिर है। यह मन्दिर पहले वीरान था, जिसे गाँव वालों द्वारा आबाद कर विष्णु की प्रतिमा स्थापित की गई। इसके स्तम्भ परमार कालीन शैली से प्रभावित हैं। इसमें प्रथम दो पर अष्ट मातृ का अंकन है। गर्भगृह की द्वार शाखा पर नवगृह पट्टिका लगी है, शिखर में विष्णु, उमा महेश्वर की प्रतिमाएँ व वराह का अंकन है।
बरूखेड़ा के दक्षिण में एक वीरान शिव मन्दिर है। इसका निर्माण सम्वत् 1624 सावन सुदी अष्टमी या दशमी को हुआ था। डा आशय का अभिलेख सभा मण्डप के गुम्बद में अंकित है। इस मन्दिर निर्माण में संकर, नाथू, सोमा, नाथू मोटा, पीथा सहयोगी रहे हैं। गाँव। दक्षिण पश्चिम में एक तीसरा मन्दिर है, यह भी शिव मंदिर है। गर्भगृह का द्वार शाखाएँ कलात्मक है। उतरंग के ललाट में शिव दाएँ, बाँऐ विष्णु यमुना व शिव का अंकन है। जो अक्षमाल, त्रिशूल, खटवाँग व कलश लिए हैं। बाँयी ओर कुर्म वाहिनी गंगा व शिव है जो वरद् त्रिशूल, सर्प व कलश लिए हुए हैं। दोनों द्वार शाखाओं में से दाँयी ओर के नीचे कुबेर व बाँयी ओर के नीचे गणेश का अंकन है।
मन्दिर के बाहर की ओर सौलह भुजी चामुण्डा, पीछे विष्णु और चौदहभुजी नृत्यरत शिव की प्रतिमा है। प्रतिमा विज्ञान की दृष्टि से ये भारत की महत्वपूर्ण प्रतिमाओं में से एक है।
बरूखेड़ा के पश्चिमी उत्तरी कोने पर काले गोलाश्मों से चूने में तैयार किए चबूतरे पर पीतवर्णी बलुआ पत्थर से निर्मित विशाल मन्दिर है। इसका शिखर अर्द्धभन्न है। गर्भगृह के उतरंग पर दाँयी ओर वादक, वृंद, मध्य ललाट बिम्ब में गणेश, बाँयी ओर चार भक्तों का अंकन है जिसमें दोध्यानस्थ हैं व तीसरा कान पकड़ता दिखाया गया है जबकि अंतिम रथिका में पार्वती का अंकन है। इसमें गणेशजी, भैरव के अलावा सरस्वती की प्रतिमा है। इस मन्दिर का निर्माणकाल 16-17 वीं शताब्दी हो सकता है। बरूखेड़ा के सभी मन्दिर मध्यप्रदेश पुरातत्व विभाग के संरक्षित स्मारक हैं।
पंचदेवल मंदिर जीरन
जीरन में तालाब के किनारे 8 वीं-9 वीं शताब्दी में निर्मित एक प्राचीन मन्दिर है जो पंच देवल कहलाता है। इससे कुछ हटकर लघु मन्दिरों का निर्माण किया गया था जो अब खण्डहर हैं। ये कथित तांत्रिकों के पूजा स्थल थे। पंच देवल गुहिल युगीन स्थापत्य एवं कला की धरोहर है। मूल मन्दिर 9 वीं-10 वीं शताब्दी में किसी गुहिल शासक द्वारा बनवाना प्रारम्भ किया गया होगा।इसके सभा मण्डप में चार स्तम्भ 1053 एवं 1065 में गुहिल वंशीय महा सामन्त विग्रहपाल की पत्नियों व उसके पुत्र द्वारा प्रदान किए गए थे। इन्हें मुस्लिम आक्रमणों के समय तोड़ा गया था जिसे सम्वत् 1608 में महाराणा जगतसिंह (प्रथम) के समय जीर्णोद्धार कर व्यवस्थित किया गया। इस आशय का एक लेख गर्भगृह में उतरग के बाँयी ओर लगा है। पंचदेवल मन्दिर और मन्दिर में लगा अभिलेख रेतीले पत्थरों से बना यह मन्दिर मूलतः भगवान शिव को समर्पित था, जैसा कि गर्भगृह के उत्तरी ललाट बिम्ब में अंकित शिव के अंकन से ज्ञात होता है। द्वार शिखर, जगत पीठिका, कर्णिका इसका ऊपरी भाग मूल है। विनाश के समय शिखर व सभा मण्डप बहा दिए गए थे । मन्दिर की कटि में अष्ट दिक्पालों की बड़ी-बड़ी प्रतिमाएँ हैं। इसके अलावा एक नृसिंह प्रतिमा भी लगी हुई है। मन्दिर के पुनः निर्माण के समय नई मूर्तियाँ शिखर पर जड़ दी गई। इनमें विष्णु के विराट रूप की 20 भुजा मूर्तियाँ, शेषमायी विष्णु, सप्त मातृकाएँ, हरिहर पितामह की मूर्तियाँ शामिल हैं। मन्दिर का गुम्बद शुद्ध मुस्लिम शैली का है।
पंच देवल मन्दिर में बर्तमान में पंचमुखी शिवलिंग रखा है। अंतराल में गरूड़ासन लक्ष्मी-नारायण एवं पार्वती की सुन्दर प्रतिमा रखी है। सभा मण्डप में गरूड़ की दुर्लभ प्रतिमा है। इसके नीचे खुदे अभिलेख से ज्ञात होता है कि गरूड़ की यह प्रतिमा राल्हा के पुत्र राघव द्वारा निर्मित की गई थी। यह प्रतिमा परमार कालीन बताई जाती है।
गरूड़ भगवान विष्णु का वाहन है। मानवी रूप में गरूड़ की उपग्रीवा हार, ग्रैवेयक, हारावली, छत्रवीर, कैयूर, कंकण, मुक्तदाम, कई लड़ियों की मेखला, पैरों में वलय व भूपुर पहने अंजली मुद्रा युक्त वीरासन में बैठे हैं। गरूड़ की दोनों भुजाओं में नाग लिपटे हैं।
पंच देवल मन्दिर में ही गरूड़ासन लक्ष्मी-नारायण की प्रतिमा परिकर विहिन है। विश्व रूप विष्णु की दुर्लभ प्रतिमा मन्दिर के शिखर में जड़ी है। इसमें रूप मण्डन व अपराजित पृच्छा के अनुसार 20 भुजाएँ व 4 मुख निर्मित किए गए थे। अव एक दाँया मुख नृसिंह का बचा है। इसकी भुजाएँ तोड़ दी गई है। यह प्रतिमा स्थानक है। इसके नीचे कमल पीठिका व दाएँ वाएँ आयुध पुरुषों में चक्र व शंख पुरूष अंकित है।
भगवान विष्णु के वराह अवतार की प्रतिमा पंच देवल मन्दिर में स्थित है। एक प्रतिमा बड़ी है तथा दूसरी छोटी है। यह लाल वालुश्म पत्थर पर बनी है। इसके रोम-रोम में मुनिजनों का अंकन है। दूसरी प्रतिमा वराह व मनुष्य का समन्वित रूप है । यह प्रतिमा चीताखेड़ा दरवाजे पर शंकरवाड़ी में है। इसमें पृथ्वी का उद्धार करते हुए वराह का अंकन है। इस प्रतिमा में जरामुकुट, अधोवस्त्र रूप में धोती पहने, वराह के हाथ में सर्प, गदा व चक्र है। बाएँ हाथ की ऊँगली में पृथ्वी कोउठाए हुए हैं, जो हाथ जोड़े हुए हैं।
हिरण्यकश्यप का वध करने के लिए भगवान विष्णु ने नृसिंह का अवतार लिया था। जीरन में नृसिंह की तीन प्रतिमाएँ हैं। पंच देबल मन्दिर में एक खण्डित व स्पष्ट प्रतिमाएँ हैं। एक प्रतिमा में नृसिंह ऊपरी हाथ में शंख चक्र लिए हुए हिरण्यकश्यप का वध करते हुए दिखाए गए हैं। अन्य प्रतिमा पंच देवल मन्दिर के पीछे रथिका में अंकित है। गुलाबी बलुआ पाषाण पर निर्मित यह प्रतिमा 89 बाय 45 सेन्टीमीटर की है। जटा, मुकुट, उभरी हुई आँखें, खुला मुँह, हार, केयूर वनमाला, उम्रदाय, कटिसूत्र आदि धारण किए नृसिंह स्थानक खड़े हैं। ऊपर दाएँ-बाएँ मालाधारी, हाथों में प्रथम अस्पष्ट, द्वितीय में शंख, तृतीय में चक्र, चतुर्थ हाथ में गदा है। पंच देवल मन्दिर में स्तनपान कराती यशोदा की प्रतिमा का भी अंकन है।
जीरन का पाशुपत सम्प्रदाय से सम्बन्ध रहा है। इसकी पुष्टि यहाँ स्थापित व इधर-उधर बिखरे पड़े शिवलिंगों से होती है। यहाँ एक विशाल शिवलिंग है। जिसमें भोजपीठ, भद्रपीठ व ब्रह्मापीठ तीनों का अंकन है।
जीरन में शिव की नृत्यमुद्रा वाली प्रतिमा भी है। उमा महेश्वर नटराज शिव की प्रतिमा के अलावा नंदी की प्रतिमा भी है। हनुमान को नंदी का अवतार सिद्ध करने वाली नंदी की प्रतिमा पंच देवल मन्दिर के खण्डहर मन्दिरों के बीच से मिली है। 105 बाय 90 बाय 34 सेन्टीमीटर आकार की इस विशाल नंदी प्रतिमा में नंदी घुटने मोड़े बैठे हैं। नंदी की यह अति विशिष्ट प्रतिमा है जो किसी पौराणिक आख्यान की पुष्टि करती है। धन के लालच में लोगों ने इसके टुकड़े कर दिए जिन्हें जोड़कर ठीक किया गया है। नंदी की यह प्रतिमा सती माता मन्दिर में है। पंचाग्री पार्वती की प्रतिमा भी जीरन में है। शिवपुत्र गणेशजी की प्रतिमाएँ जीरन में उपलब्ध है। सड़क से जीरन में प्रवेश करते ही गणेशजी का मन्दिर है। जिसका 3 जून 2002 को जीर्णोद्धार कर कलश एवं ध्वजादण्ड का आरोहण किया गया। नृत्यरत गणेश की प्रतिमा जिसके हाथ में सर्प है, यह किलेश्वर है। घोड़ा (गौड़) घाटी पर गणेशजी का छोटा मन्दिर है। इसमें गणेश व विनायकी की प्रतिमा है। द्विभंग में खड़े गणेश से विनायिकी आलिंगनरत है। जीरन में 6 भुजा वाली महिषासुर मर्दिनी की प्रतिमा मिली है।
पंच देवल मन्दिर मार्ग पर बागेश्वरी देवी का मन्दिर है, जो 13 वीं 14 वीं शताब्दी का है। इसमें महिषी के दो सिर वाली प्रतिमा है। एक षट्भुजा प्रतिमा 97 बाय 60 बाय 18 से.मी. आकार की है।
इसके हाथों में त्रिशूल, छुरी, खद्दङ्ग, घण्टी, धनुष व महिष की पूँछ है। चूनाश्म से निर्मित इस प्रतिमा में महिष का मुँह बाँयी ओर अंकित है जिसे देवी अपने दाहिने पैर से दबा रही हैं तथा वीरासन में खड़ी है। समीप की एक अन्य प्रतिमा में महिष का मुँह बाँयी ओर है यह प्रतिमा 9 वीं 10 शताब्दी की है।
जीरन के तालाब के किनारे सती माता का एक मध्ययुगीन मन्दिर बना हुआ है। ईंटों से निर्मित इस मन्दिर पर चूने का चिकना प्लास्टर किया हुआ है। इसका निर्माण सम्वत् 1549 में छोटी सादड़ी के किसी स्वर्णकार द्वारा करवाया गया था।
इसका अभिलेख प्रवेश द्वार के दाहिनी ओर भीतर लिखा गया है। यह सती मन्दिर पूर्ण रूप से मध्ययुगीन शैली का है। चारों ओर दरवाजे व मध्य में मन्दिर है। इसमें विशाल नंदी को धन के लालची लोगों ने खण्डित कर दिया था जिसे जोड़कर अब मन्दिर के भीतर रख दिया गया है। इसमें मेखलायुक्त योनीपाद में लिंग स्थापित है। ऊपर पार्वती की सुन्दर प्रतिमा है।
सती मन्दिर जिसे सती बंगला के नाम से भी जाना जाता है, इस सती मन्दिर के निकट ही एक चबूतरे पर जोधा शक्तावत की चार पत्नियों द्वारा सती होने का भी उल्लेख मिलता है। जोधा शक्तावत के वंशजों का कहना है कि जोधा के साथ उनकी मात्र दो पत्नियाँ ही सती हुई थी लेकिन जीरन की देवली पर तलवार व खड्ग लिए एक पुरूष के साथ चार स्त्रियों का अंकन है। यह कहना कठिन है क्योंकि नैणसी ने अपनी ख्यात में घटना की तिथि नहीं दी।
अन्य स्त्रोत अनुमानित सम्वत् देते हैं। क्षतिग्रस्त अभिलेख के प्रारम्भ में सम्वत् 1554 मगसर सुदी 1 या 7 रविवार अंकित है व अभिलेख के अंत में सम्वत् 1548 दिया गया है। अभिलेख के मजमून से ज्ञात होता है कि सम्वत् 1548 में जोधा मरे तब उनकी पत्नियाँ सती हुई होगी व उनकी स्मृति में सम्वत् 1 554 में देवली की स्थापना की गई होगी।
पंचदेवल मन्दिर में स्थित चतुर्मुखी शिव प्रतिमा
जीरन पंचदेवल मन्दिर में स्थित चतुर्मुखी शिव प्रतिमा है जो औलीकर स्थापत्य का अद्वितीय नमूना है। श्रीमती डॉ. पंकज आमेटा (उदयपुर) के अनुसार चारों मुँह भिन्न भाव-भंगियायुक्त है व अर्द्ध चन्द्र युक्त जटामुकुट कुण्डल व कुण्ड माला इसके औलीकर युगीन होने के अकाट्य प्रमाण है। इसके चेहरों की भव्यता दशपुर की अष्टमुखी शिव से मिलती जुलती है।
जौरन के प्राचीनकाल में (1500 वर्ष पुराना) एक मार्ग छोटी सादड़ी, दूसरा सावन, तीसरा खोर होते हुए है। चित्तौड़गढ़ व चौथा दशपुर को जाता है दशपुर के तोरण खण्ड (किले में स्थित सरवन की फावड़ ?) के चतुर्मुखी शिव स्थापत्य से मिलते जुलते कुछ खण्ड भी इस मन्दिर के पास देखने को मिलते है। प्रतिहार कालीन पुरावशेषों की भरमार जीरन की दूसरी विशेषता है। ये दो भागों में विभक्त किए जा सकते हैं – 1) आठवीं व नवीं सदी के प्रतिहारी कलावशेष व 2) दसवीं व ग्यारहवीं सदी के स्थापत्य के नमूने ।
प्रथम भाग में युद्ध, वृन्दगान, नृत्य के पेनल सम्मिलित किए गए है व दूसरे भाग में दशावतार पेनल व विष्णु व लक्ष्मी की गरुड़ पर बैठी व गरुड़ की प्रथम आकर्षक प्रतिमाएँ व कुछ तोरण द्वार आते है। यहाँ से प्राप्त अलंकृत वराह की खण्डित प्रतिमा खोर से प्राप्त नव तोरण मन्दिर में स्थापित बराह से काफी साम्य रखती है। इसी समूह में शेषशाही विष्णु की प्रतिमा उल्लेखनीय है। यह बानगी तो खुले में उपेक्षित मूर्तियाँ अभी भी दबी पड़ी है। चतुर्मुखी शिव की एक प्रतिमा जावद तहसील के ग्राम मोरवन में भील मोहल्ले में भी स्थित है।
किले, महल और मकबरे आदि
भरभडि़या किला
जिला मुख्यालय से आठ किलो मीटर दूर भरभडि़या ग्राम में स्थित किला जो मध्ययुगीन दुर्ग टोंक रियासत के नवाबो द्वारा बनवाया गया जो खण्डर हो चुका है इसमें चारो दिशाओं में चार बुर्ज बनी हुई है। इसी के नजदीक ग्राम महेशपुरीया में सड़क किनारे टोंक रियासत की चौकी बनी है जहां रियासत काल में यात्रियों से कर वसूला जाता था।
अठाना महल
सन 1628 में नरसिंह दास चन्द्रावत ने अठाना ठिकाने की स्थापना की व मेवाड़ राज्य के अन्तर्गत रहते हुए किले व महल का निर्माण करवाया जिसमें कलात्मक पत्थ्ार पर बेल बूटे, स्तम्भ गोखड़े, टोडिद्या कलात्मक रूप से लगाई गई है। महल में कॉंच का उपयोग छत व दिवारों पर किया जाकर दिवारो पर भीत्ती चित्र उकेरे गए है।
सिंगोली किला
जिला मुख्यालय से 80 कि.मी. दूर सिंगोली नगर 13वी-14वी शताब्दी के पूर्व की बसाहट है। यहां पर राजपूत कालीन स्थापत्य कला पर आधारित दुर्ग 11वी से 13वी शताब्दी के बीच बना हुआ है। किले में परकोटे बुर्ज बने है जो अब खण्डर हो गए।
रतनगढ़ किला
जिला मुख्यालय से 50 कि.मी. दूरी पर स्थित अरावली पवर्त श्रंखला पर स्थित रतनगढ़ किले का निर्माण हाड़ा राजवंश के रतनसिंह हाड़ा द्वारा सम्वत 1411 में सामरिक दृष्टि से हाड़ोती की रक्षा हेतु करवाया था। किले के चारो दिशाओं में चार दरवाजे स्थित है। किले के चारो और 30 फीट ऊँची दिवारे व बुर्ज बनी हुई है। अधिकांश हिस्सा खण्डर हो गया है।
अंग्रेजो का किला
अंग्रेजो के शासन काल में नीमच को छावनी बनाते हुए 1819 में छावनी क्षैत्र में किला बनाया गया जो वर्तमान में सी.आर.पी.एफ. के द्वारा उपयोग किया जा रहा है। अंग्रेज सेना की सुरक्षा व शस्त्रागार के लिए इस किले का निर्माण सर डेविड आक्टर लोनी ने सन् 1819 में करवाया। इस किले के निर्माण पर उस समय 1.50 लाख रूपये खर्च हुए। किला चौकोर चार बुर्जो युक्त इस दुर्ग के भीतर लम्बे-लम्बे बरामदे थे जिन्हे सन् 1975-76 के आस-पास आवास गृह में परिवर्तित कर दिया गया। बुर्जो के नीचे तहखाने बने हुए है। किले के मध्य में एक कब्र बनी हुई है जो रिचर्ड डब्ल्यू प्राईट की है। यह 1857 की क्रांति के दौरान मारा गया था। किले का दरवाजा दोहरा है। एक स्थायी द्वार और दूसरा उठने गिरने वाला था जो दरवाजे पर लगी गिर्रियों द्वारा उठाया गिराया जा सकता था। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान क्रांतिकारियों ने इस पर दो बार आक्रमण किया था। वर्तमान में किले का उपयोग सीआरपीएफ. की फस्ट बटालियन के द्वारा किया जा रहा है।
उद्यान, कुण्ड/बावड़ी
रामपुरा स्थित पातोसिया की बावड़ी
जिला मुख्यालय से 60 कि.मी. दूर स्थित यह बावडी रामपुरा के चन्द्रावत राजाओं के द्वारा बनवाई गई। इस बावड़ी में सुन्दर सीढ़ीया, झरोखे,गोखड़े, ऊपर की और छतरिया बनी हुई है। बावडी के प्रवेश द्वार पर एक और गणेशजी एवं दूसरी और विष्णु की प्रतिमा स्थापित है। गुम्बज पर नक्काशी की गई है। रामपुरा में कभी सास बहु की बावड़ी बहुत प्रसिद्ध थी लेकिन गांधी सागर बाँध बनने से वह डूब में चली गई।
फुलपुरा की कलात्मक बावड़ी
जिला मुख्यालय से 45 किलो मीटर दूर रामपुरा मार्ग पर फुलपुरा ग्राम स्थित है। यह बावड़ी सुन्दर नक्काशी दार पत्थर से निर्मित है। वर्तमान में ग्राम में इसी से नल जल योजना से पानी उपलब्ध होता है। इसमें बने झरोखे, ऊपर कलात्मक छतरी बनी हुई है। इस बावड़ी का निर्माण वहां प्रवेश द्वार पर लगे शिलालेख अनुसार सम्भवत: 1563 में ‘नगजी रावल जोधावत’ ने करवाया। बावड़ी पर लगे शिलालेख पर बावड़ी निर्माण कर्ता कारिगरों की जानकारी भी अंकित है।
अठाना की बावडी
अठाना ग्राम में स्थित बावड़ी का निर्माण अठाना महल के बाद करवाया गया। बावड़ी में झरोखे स्थापत्य की दृष्टि से कलात्मक सोन्दर्य को अपने में समेटे है। इसके अलावा अठाना में ऊॅकार कुण्ड, मोतिया बावड़ी, मोमिनपुरा मस्जिद वाली बावड़ी, नवलख बावड़ी भी स्थित है।
थड़ोद की बावडी
जिला मुख्यालय से 90 कि.मी. दूर ग्राम थड़ोद में ब्राम्हणी नदी के तट पर स्थित बावड़ी का निर्माण नजदीकी बेगु के रावजी ने अपनी पुत्रियों की याद में जनहितार्थ करवाया। यह स्थापत्य कला का बेमिसाल नमूना है। इसकी बनावट स्वास्तिका कार है। इसका निर्माण बावड़ी में लगे शिलालेख अनुसार सम्वत् 766 में हुआ । ग्राम थड़ोद में कुल 5 बावड़ी व कुण्ड है।
भादवा माता की बावड़ी
जिला मुख्यालय के 19KM दूर स्थित भादवा ग्राम में मालवा की प्रसिद्ध लोक आस्था की शक्ति मॉं भादवा माता मंदिर के पास स्थित यह बावड़ी 18वी सदी में निर्मित है। बावड़ी के पानी की मान्यता है की इसका उपयोग करने से लकवाग्रस्त व्यक्ति ठीक हो जाते है।
सावन कुण्ड
जिला मुख्यालाय से 20 कि.मी. दूर मनासा मार्ग पर बंजारा बाहुल्य ग्राम सावन में स्थित है यह सड़क मार्ग के नजदीक है। इसकी सीढि़यॉं बावड़ी के तल तक जाती है इसकी गहराई लगभग 75 फुट है।
अन्य बावडि़या
मोड़ी माता की बावड़ी, निपानिया आबाद, जमुनिया ओघड़नाथ की बावड़ी, जीरन में नाथो की बावड़ी, शंकर बावड़ी, सावन में पंचारियों की बावड़ी, डूंगलावदा में कावसजी की बावड़ी।
ऐतिहासिक स्थापत्य शैली वाली इमारत/स्थल
ब्रिटिश युगीन निर्माण
सन 1818 से लेकर 15 अगस्त 1947 तक लगभग 129 वर्ष नीमच (छावनी) में अंग्रेजो के द्वारा यहां रेजिडेंसी भवन (आक्टरलोनी हाल) किला, बेरेक्स, चर्च, रेलवे स्टेशन, बंगलो और कब्रिस्तान आदि का निर्माण करवाया जो ब्रिटिश स्थापत्य कला को स्पष्ट रूप से रेखांकित करता है। वर्तमान में यह केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल के क्षैत्राधिकार में है।